यम सल्लेखना :- दिगंबर महाराज श्री चिन्मय सागर जी जंगल वाले बाबा आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य है


 


कितना गर्व हो रहा है देखकर जब आचार्य शांतिसागर जी महाराज की निर्दोष परंपरा को आगे बढ़ाने वाले संत आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज के शिष्य मुनि श्री चिन्मय सागर जी महाराज अपने अंतिम समय मे यम संलेखना लेकर बड़ी ही सजगता से अपने अंतिम पड़ाव यानि कि मोक्ष की ओर बढ़ने को निरन्तर आतुर दिखाई दे रहे है



                     _जंगल वाले बाबा कहते ही मुनि चिन्मय सागर जी महाराज की छवि हमारी आंखों में आ जाती है छोटा कद और गठा हुआ साँवला बदन देखकर कोई भी बता सकता था कि यह दक्षिण भारत से है किंतु उनकी बोली को सुनकर अच्छे अच्छे लोग भौचक्के रह जाते थे कि ये इतनी साफ और शुध्द हिंदी को कैसे बोल लेते है और वह भी धारा प्रवाह_



                     वे सदा से एक अनोखे और अलबेले संत के रूप में दिखाई देते रहे है उनकी अपनी साधना के प्रति इतनी अधिक लगन थी कि सदा एकांत में रहने का प्रयास करते और घंटो सामयिक में रत रहते ,,,, धीरे धीरे एकांत की बढ़ती ललक ने उन्हें जंगल की ओर जाने की प्रेरणा दी और वे जंगल मे जाकर एकांत में अपनी साधना करने लगे कुछ ही समय मे उन्हें जंगल ही पसंद आने लगे और कुछ दिनों बाद तो उनका अधिकतर समय ही जंगल मे बीतने लगा इस प्रकार वे जंगल वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध हो गए



                 _कहने को तो लोग उन्हें जंगल वाले बाबा के नाम से पहिचानने लगे थे किंतु जंगलों के आसपास रहने वाले श्रावको के बीच मे वे एक ऐसे साधु के रूप में प्रसिद्ध थे जो उन्हें शाकाहार की और ढकेलने का प्रयास करते थे और दुर्व्यशनो से दूर रहने की सलाह देते थे वे समय समय पर एक मनको की माला देकर लोगो को शपथ दिलाते थे कि वे अपने जीवन मे जुआ शराब जैसे दुर्व्यशनो को आने नही देंगे और घर मे ही रहते हुए एक संत के समान त्यागी बनकर रहने का प्रयास करेंगे_
                     


शायद ही नही निश्चित ही वे ऐसे साधु की श्रंखला में अग्रणी कहे जाएंगे जिन्होंने अजैनो को जैन बनाने का एक रिकॉर्ड बनाया है अथार्त माँस मदिरा का त्याग कराकर शाकाहारी बनने की ओर अग्रसर किया



                  _यह महज इत्तिफाक है कि अपने अंतिम समय में वे किसी घड़ी के कांटे की तरह संसार मे चारो ओर घूमने के बाद पुनः उसी गाँव मे आ गए जहां उनका जन्म हुआ था,,,, जुगुल जहां वे जन्मे अपने प्राणों का त्याग भी वे उसी गाँव मे बड़ी ही निश्छलता के साथ कर रहे है_



                  पांच दिन की पूर्ण अवधि के बाद भी सजगता से अपने सभी आवश्यको को पूरा करते हुए कुछ मुनिराजों की सनिद्धि में अपनी संलेखना को पूर्ण करते हुए अपने साधु जीवन को सार्थक कर रहे है


 
                 _सम्पूर्ण जीवन अपनी चर्या से समझौता ना करने के कारण अर्जित हुए पुण्य के प्रताप से ही उनकी संलेखना संसार मे श्रेस्ठ संलेखनाओ में गिनी जाएगी शास्त्रो के पन्नो पर जिस प्रकार पूर्वाचार्यो ने साधकों की प्रशंसा लिखी है उसी प्रकार इस युग मे प्रकाशित होने वाली पुस्तको में मुनि चिन्मय सागर जी की समाधि को गौरवपूर्ण ढंग से लिखा जाएगा_
               


संसार से जाने के बाद भी वे  अमर साधक की तरह याद किये जाएंगे हम उनकी संलेखना की पूर्णता के लिये भगवान से प्रार्थना करते है वे शीघ्र मुक्तिरमा का वरण कर जीवन मरण के इस चक्र का त्याग कर लोक के उस भाग में विराजमान हो जहां से आने का कोई रास्ता ही ना हो


 


नमोस्तू मुनिवर